प्रसन्नता के लिए शिक्षा



जब एक नवजात शिशु असहाय है, तो उसे सामाजिक रीति-रिवाज, परम्परा का ज्ञान नहीं होता है तब भी उस पर शिक्षा के औपचारिक तथा अनौपचारिक साधनों का प्रभाव पड़ने लगता है। उसमें सामाजिक भावना का विकास होना प्रारम्भ हो जाता है। जिस प्रकार शिक्षा एक ओर बालक का सर्वांगीण विकास करके उसे तेजस्वी, बुद्धिमान, चरित्रवान, विद्वान तथा वीर बनाती है, उसी प्रकार दूसरी ओर शिक्षा समाज की उन्नति के लिए एक आवश्यक तथा शक्तिशाली साधन है। शिक्षा का माध्यम बालक का सर्वांगीण विकास करना तो हैं ही, परन्तु शिक्षा इस प्रकार की होनी चाहिए जो कि उसे प्रसन्नता भी प्रदान करे। वह जो भी शिक्षा प्राप्त करे, किसी दबाव के कारण नहीं बल्कि पूरे मन तथा भावना से करें। व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है और शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है। शिक्षाशास्त्रियों का  वह वर्ग जो व्यक्ति की अपेक्षा समाज को अधिक महत्वपूर्ण मानता है, उसका यह मानना है कि शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति के अन्दर सामाजिक भावना का विकास करना होना चाहिए। वास्तव में यदि देखा जाये तो समाज के साथ व्यक्ति की इतनी अधिक घनिष्टता है कि उसमें रहकर ही वह अपना विकास कर सकता है और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है। आदर्शवादी विचारधारा का विश्वास हैं कि सभी प्राणियों में एक समान तत्व आत्मा है और इस दृष्टिकोण से सभी प्राणी एक दूसरे से सम्बन्धित हैं। अपने सुखमय जीवन और ईश्वर प्राप्ति हेतु हमें सभी से प्रेम करना चाहिए और सभी के कल्याण की कामना करनी चाहिए। इसके लिए यह जरूरी है कि हम स्वार्थ का त्याग करके पदार्थ भाव को अपनायें । जैसा कि मार्क्स  औरिलियस ने कहा भी है। * आपके जीवन की प्रसन्नता आपके विचारों के गुणों पर निर्भर करती है। प्राचीनकाल में स्पार्टा व जर्मनी में दी जाने वाली शिक्षा सामाजिक उद्देश्यों को संकुचित रूप में प्रस्तुत करती है। उस समय शिक्षा का उद्देश्य वैयक्तिक श्रेष्ठता प्रदान करना था। परन्तु वैयक्तिक श्रेष्ठता का अभिप्राय था ,सैनिक उच्चता प्राप्त करना। शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य था, व्यक्ति को शारीरिक दृष्टि से सम्पूणर्ती प्रदान करना और उसे पूर्ण अधिकारी बनाना, जिससे कि वह एक अच्छा नागरिक बन सके। हेगले नाम के शिक्षाशास्त्री ने कहा है कि ‘समाज व्यक्ति से श्रेष्ठ है तथा इसी कारण शिक्षाशास्त्र में व्यक्ति से ऊँचा स्थान समाज को दिया जाना चाहिए। इस बात को भी स्वीकार किया गया कि व्यक्ति राष्ट के लिए है, राष्ट व्यक्ति के लिए नहीं। राष्ट्र को सबल व सुदृढ़ बनाना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। शिक्षा को राष्ट्र के आदर्शों  व आवश्यकताओं के अनुकूल होना चाहिए। फिक्रे नामक शिक्षाशास्त्री ने भी स्वतन्त्र सत्ता के सम्बन्ध में विश्वास व्यक्त किया है। उन्होंने कहा, कि राज्य से ऊपर अन्य किसी अधिकारी की सत्ता नहीं है। राज्य ही सर्वोच्च सत्ता है तथा इसको बनाये रखने के लिए व्यक्ति को किसी भी प्रकार का बलिदान देने के लिए तत्पर रहना चाहिए। राष्ट्र अपनी आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षा के उद्देश्यों के आधार पर पाठ्यक्रम निर्धारित करता है। आज के समय में अनेक बुराइयाँ फैली हुई हैं तथा केवल शिक्षा ही वह माध्यम है। जो हमें समाज में फैली हुई बुराइयों से बचा सकती है। फिस्टे ने अपने भाषण के माध्यम से प्रत्येक जर्मनी निवासी के मस्तिष्क में यह बात कूट-कूट कर भर दी कि व्यक्ति राष्ट्र की सेवा के लिए ही पैदा हुआ है। अतः शिक्षा के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति में अपने राष्ट्र के प्रति अपार भक्ति की भावना का विकास किया जाना अत्यन्त आवश्यक है। परन्तु शिक्षा का उद्देश्य समाज का कल्याण करना है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री रेमन्ट ने कहा भी है - जो विद्धान व्यक्ति को समाज के ऊपर स्थान देते हैं, उनको स्मरण रखना चाहिए कि निःसमाज व्यक्ति कोरी कल्पना है। अतः शिक्षा का उद्देश्य व्यक्तिगत चरित्र गठन  के साथसाथ बालक को सच्चा सामाजिक प्राणी तथा नागरिक बनाना है। परन्तु यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि जो भी शिक्षा समाज के उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए प्रदान की जाये , वह इस प्रकार की हो जो कि बालक को प्रसन्नता भी प्रदान करे । उसको नैतिक कर्तव्य सिखाये तथा केवल ऊपर से थोपी गयी न हो। जार्ज वाशिंगटन ने कहा है कि -'प्रसन्नता, शिक्षा तथा नैतिक कर्तव्य एक दूसरे से पूरी तरह जुड़े हुए हैं।'